देवनागरी(Devnagri Lipi) एक भारतीय लिपि है। जिसमें कई भारतीय भाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएँ लिखी जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। किसी भी भाषा को लिखने के लिए जिस चिन्ह का प्रयोग किया जाता है, उसे लिपि कहते हैं। लिपि किसी भी भाषा के ध्वनि चिन्हो को लिखित रूप में अभिव्यक्त करती है। लिपि की मदद से किसी भी शब्द को लिखा जा सकता है।
देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) भारत की सबसे प्राचीन लिपियों में से एक है। इसमें कई भाषाएं लिखी जाती हैं जैसे- हिंदी, संस्कृत, मराठी, पाली, राजस्थानी, नेपाली, गुजराती। अधितकतर भाषाओं की तरह देवनागरी(Devnagri Lipi) भी बायें से दायें लिखी जाती है। इसमें प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती हे जिसे शिरोरे़खा कहते हैं।
इसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है। जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है।
देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) में कुल 52 अक्षर हैं, जिसमें 24 स्वर और 38 व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था भी वैज्ञानिक है।
Devnagri Lipi का नामकरण :-
कहां जाता है कि देवनगर (काशी) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी(Devnagri Lipi) पड़ा। प्राचीनकाल में काशी को ‘देव नगर’ नाम से जाना जाता था। इस नगर में इस लिपि के उद्भव होने से इसे देवनागरी कहा गया है। देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) में संस्कृत भाषा को भी शामिल किया जाता है। संस्कृत भाषा को ‘देववाणी’ भी कहते हैं। संस्कृत भी नागरी में लिखी जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि संस्कृत के इस नगरी मे ‘देव’ जोड़ कर भाषा को ‘देवनागरी’ नाम दिया गया।
नागरी लिपि(Devnagri Lipi) के आठवीं और नौवीं शताब्दी के रूप को ‘प्राचीन नागरी’ नाम दिया गया है। इसलिए कुछ लोगों का मानना है कि दक्षिण भारत के विजय नगर के राजाओं के दान-पात्रों पर लिखी हुई नागरी लिपि का नाम ‘नंदिनागरी’ दिया गया। जिसे बाद में बदलकर देवनागरी कर दिया गया।
Devnagri Lipi का मानकीकरण :-
भारतीय संविधान में हिन्दी को भारतीय संघ की राष्ट्रभाषा के साथ राजभाषा भी स्वीकार किया गया। और उसकी लिपि के रूप में देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) को मान्यता दी गई है। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अन्तर्गत केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के तत्त्वावधान में भाषाविदों, पत्रकारों, हिन्दी सेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मन्त्रालयों के प्रतिनिधियों के सहयोग से देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) तथा हिन्दी वर्तनी का एक मानक रूप तैयार किया गया है। यह स्वरूप ही आधिकारिक तौर पर मान्य है और इसी का प्रयोग किया जाता है।
देवनागरी लिपि का निर्धारित मानक रूप
स्वर – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ
मात्राएँ – – ाा, ॉ, ुु, ेे, ैै,ॊ, ौ, िी
अनुस्वार – अं
अनुनासिकता चिह्न – ँं
व्यंजन – क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ´, ट, ठ, ड, ढ (ढ़), ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह।
संयुक्त व्यंजन – क्ष, त्र , श्र
हल चिह्न – ( ् )
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देवनागरी वर्तनी का मानकीकरण :-
1) संयुक्त वर्ण
खड़ी पाई वाले व्यंजन: खड़ी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप खड़ी पाई को हटाकर ही बनाया जाना चाहिए। यथा:, ख्याति, लग्न, विघ्न, कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास, प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य, उल्लेख, व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय, यक्ष्मा आदि।
2) क्रियापद
संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक्-पृथक् लिखी जानी चाहिए। जैसे – पढ़ा करता है, बढ़ते चले जा रहे हैं, आ सकता है, खाया करता है, खेला करेगा, घूमता रहेगा आदि।
3) विभक्ति चिह्न
हिन्दी के विभक्ति चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में पृथक् लिखे जाने चाहिए। जैसे – राम ने, राम को, राम से आदि तथा स्त्री ने, स्त्री को, स्त्री से आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिह्न प्रातिपदिक के साथ मिलाकर लिखे जाने चाहिए, जैसे – उसने, उसको, उससे।
सर्वनाम के साथ अगर दो विभक्ति चिह्न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा हटाकर लिखा जाना चाहिए। जैसे – उसके लिए, इसमें से।
4) अव्यय
तक, साथ आदि अव्यय हमेशा अलग लिखे जाने चाहिए। जैसे – आपके साथ, यहाँ तक।
देवनागरी लिपि का विकास :-
हम भी तो पढ़ चुके हैं कि देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) क्या है। इसका नामकरण कैसे हुआ, और इसके क्या-क्या मानकीकरण है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) का विकास कैसे हुआ? आज इस आर्टिकल के जरिए हम आपको बताएंगे कि देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) का विकास कैसे हुआ।
देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) भारत की सबसे लोकप्रिय और प्राचीन लिपि है। इसका प्रयोग राजस्थान से बिहार तथा हिमाचल प्रदेश से मध्य प्रदेश की सीमा तक होता है। इस विस्तृत प्रदेश में हिंदी भाषा और अन्य प्रचलित समस्त बोलियाँ इसी लिपि में लिखी जाती है।
मराठी और गुजराती में भी लिपि के रूप में देवनागरी का ही प्रयोग किया जाता है। इससे कैथी, मैथिली तथा बंगला आदि लिपियाँ विकसित हुई। देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है।
8 वीं शताब्दी में राष्ट्रकुल नरेशों में भी यही लिपि प्रचलित थी। और 9 वीं शताब्दी में बङौदा के ध्रुवराज ने भी अपने राज्यादेशों में इसी लिपि का प्रयोग किया है।
यह लिपि भारत के सबसे अधिक क्षेत्र में प्रचलित है और बोली जाती है। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार , महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात आदि प्रान्तों में उपलब्ध शिलालेख, ताम्रपत्रों, हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थों में देवनागरी लिपि(Devnagri Lipi) का ही सर्वाधिक प्रयोग हुआ हैं।
ईसा की 8 वीं शताब्दी में जो देवनागरी लिपि(devnagri lipi) प्रचलित थी, उसमें वर्णों की शिरोरेखाएं दो भागों में विभक्त थीं जो 11 वीं शताब्दी में मिलकर एक हो गयी। 11 वीं शताब्दी की यही लिपि वर्तमान में प्रचलित है। देवनागरी लिपि का प्रयोग हिन्दी, संस्कृत, मराठी भाषाओं को लिखने में किया जाता है।
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) पर कुछ अन्य लिपियों का प्रभाव भी पङा है।
गुजराती लिपि में शिरोरेखा नहीं होती। आज बहुत से लोग देवनागरी में शिरारेखा का प्रयोग लेखन में नहीं करते। इसी प्रकार अंग्रेजी की रोमन लिपि में प्रचलित विराम चिह्न भी देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में लिखी जाने वाली हिन्दी ने ग्रहण कर लिए है।
देवनागरी लिपि की विशेषताएं :-
देवनागरी लिपि भारत की महत्वपूर्ण लिपि है। इस लिपि से कई भाषाओं का जन्म हुआ है। देवनागरी लिपि की कुछ विशेषताएं हैं जो इस प्रकार हैं-
1) वर्णमाला की पूर्णता
देवनागरी लिपि का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ। ब्राह्मी लिपि में जहां 64 लिपि चिह्न थे वहीं देवनागरी में केवल 52 लिपि चिह्न हैं। लेकिन फिर भी लिपि चिन्हों की यह संख्या संसार की अन्य भाषाओं से अधिक है। अंग्रेजी की लिपि में 26 चिह्न हैं, जर्मन भाषा की लिपि में 29 चिह्न हैं। यही कारण है कि देवनागरी लिपि में हर ध्वनि को लिखा जा सकता है।
2) गतिशीलता
नागरी लिपि गत्यात्मक और व्यावहारिक है। इसमें आवश्यकता अनुसार कुछ लिपि चिह्नों को शामिल किया गया है। जैसे जिह्वामूलीय ध्वनियों, जैसे – क़, ख़, ग़, ज़, फ़ आदि को फारसी से ग्रहण कर लिया गया है। जिससे यह लिपि वैज्ञानिक बनी है।
3) क्रमबद्धता
देवनागरी लिपि में स्वर और व्यंजनों को क्रमबद्ध रूप से लिखा गया है। इसमें पहले स्वर आते हैं, उसके बाद व्यंजन आते हैं। आखिर में संयुक्त व्यंजन क्ष, त्र, ज्ञ, श्र आते हैं।
4) वर्णात्मकता
देवनागरी लिपि वर्णात्मक है। इसका अर्थ है कि इसके वर्णों के लेखन में उच्चारण समान है। फारसी और रोमन लिपि में यह विशेषता नहीं मिलती। उदाहरण के लिए जीम, दाल आदि वर्णों का उच्चारण होता है, लेकिन वर्णों को मिलाते समय यह ज, द की ध्वनि देते हैं।
इसी प्रकार रोमन लिपि में H और S को क्रमशः एच और एस उच्चरित करते हैं। लेकिन यह वर्ण भी शब्द बनाने पर ह और स की ध्वनि देते हैं।
5) लिपि चिह्नों का वर्गीकरण
देवनागरी में वर्णों का वर्गीकरण पूरी तरहा वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है। इसमें पहले स्वर आते हैं, उसके बाद व्यंजन और आखिरी में संयुक्त व्यंजन आते हैं। उच्चारण स्थान के आधार पर भी वर्णों का वर्गीकरण किया गया है।
6) वर्णों का उच्चारण
देवनागरी लिपि में वर्णों का उच्चारण निश्चित है, लेकिन रोमन लिपि में अनेक स्थानों पर वर्णों का उच्चारण बदल जाता है। जैसे-
Put – पुट
But – बट
Go – गो
To – टू
7) लेखन व मुद्रण की एकरूपता
रोमन लिपि में लेखन व मुद्रण में भिन्नता पाई जाती है। परंतु देवनागरी लिपि में लेखन व मुद्रण में एकरूपता मिलती है। रोमन में सभी वाक्य कैपिटल वर्ण से शुरू होते हैं। देवनागरी लिपि में यह समस्या नहीं है।
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देवनागरी लिपि के दोष :-
देवनागरी लिपि जितनी प्राचीन और प्रभावशाली है उतना ही इस लिपि में दोष भी है। कोई भी लिपि अपने आप में पूरी तरीके से सही नहीं होती। किसी भी लिपि में कोई ना कोई दोष जरूर होता है।
देवनागरी लिपि जितनी बड़ी और विशाल है, उतना ही इस लिपि में दोष भी है। इसके गुणों के बारे में तो आप पर ही चुके हैं, चलिए इसके दोषों के बारे में आपको बताते हैं।
1) देवनागरी लिपि का बड़ा होना इसका सबसे बड़ा दोष है। इस लिपि में 403 टाइप है। जिसकी वजह से टंकण या मुद्रण करने में कठिनाई होती है। इस लिपि में अक्षरों की संख्या इतनी ज्यादा है कि इसके मुद्रण करने वाले को परेशानियां आती है।
2) देवनागरी लिपि में अनावश्यक अलंकरण के लिए शिरोरेखा का प्रयोग किया जाता है। इस शिरोरेखा का प्रयोग ही इसके दोष को बताता है।
3) समरूप वर्ण इस लिपि का सबसे बड़ा दोष है, क्योंकि इसकी वजह से भ्रम उत्पन्न होता है। जैसे- ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना।
4) देवनागरी लिपि के प्राचीन होने की वजह से इसमें निश्चित व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। लिपि में वर्णों को संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है। जो उसके दोषों को बताती है।
5) देवनागरी लिपि में अनुस्वार और अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव देखने को मिलता है।
6) देवनागरी लिपि लिखते समय बार-बार हाथ को उठाना पड़ता है, जिससे लेखन में लय नहीं बनती।
7) इ की मात्रा ( ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद।
8) वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति।
देवनागरी लिपि में सुधार :-
देवनागरी लिपि में सुधार और उसकी सीमाओं को दूर करने के लिए समय-समय पर सुझाव आते रहते हैं। लेखन और मुद्रण से संबंधित जो दोष देवनागरी में विद्यमान थे, उनमें सुधार के कुछ प्रयास व्यक्तिगत स्तर पर किए गए तो कुछ संस्थागत स्तर पर किए गए।
देवनागरी में किए गए व्यक्तिगत प्रयास :-
मुद्रण की समस्याओं की तरफ़ सबसे पहला ध्यान लेखक और संपादक बालगंगाधर तिलक का गया। उन्होंने सन् 1904 ई॰ में अपने पत्र ‘केसरी’ के लिए कुछ टाइपों को मिलाकर और थोड़ी हेराफेरी के साथ उनमें कमी करने का प्रयास शुरू किया।
उन्होंने 1926 तक टाइपों की छँटाई करते-करते 190 टाइपों का एक फ़ॉन्ट बना लिया। जिसे ‘तिलक फ़ॉन्ट’ कहते हैं।
इसी दौरान महाराष्ट्र के सावरकर बंधुओं (विनायक, गणेश और नारायण) ने स्वरों के लिए ‘अ’ की बारहखड़ी तैयार की। जैसे – अि, अी, अु, अू, अे, अै, ओ, औ जबकि आ, ओ, औ तो चलते ही हैं।
वर्धा में इसे कई वर्षों तक प्रयोग में लिया जाता रहा। महात्मा गाँधी के ‘हरिजन सेवक’ में भी इस बारहखड़ी का प्रयोग हुआ।
श्यामसुंदर दास का सुझाव था कि ङ और ञ के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाय। जैसे – गङ्गा, पञ्चम आदि के स्थान पर गंगा, पंचम लिखा जाय। गोरख प्रसाद मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिनी ओर अलग से रखने के पक्ष में थे। जैसे – प ु ल, श ै ल।
काशी के श्रीनिवास का सुझाव था कि महाप्राण वर्ण हटाकर अल्पप्राण के नीचे कोई चिह्न लगा दिया जाय। माना गया कि इन सुझावों से भी वर्णों की संख्या में कमी होगी।
:- गुंजन जोशी